Wednesday, September 16, 2020

The Times of Pandemic

                   कोविल-काल 

नोट:-  यह लेख, लेखक की कल्पना पर आधारित है। इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं। यह  किसी भी प्रकार की यथार्थ वस्तुस्थिति का दावा नहीं करता। इसका लक्ष्य किसी भी सहृदय के हृदय को आहत करना नहीं है, यदि अनवधानवश ऐसा हो जाता है, तो उसके लिए लेखक क्षमायाची है।  

     इस लेख का शीर्षक 'कोविल-काल' ही है, इसमें कोई टाइपिंग (typing) की त्रुटि नहीं है। संस्कृत व्याकरण में सूत्र है 'डलयोरभेदः'अर्थात् 'ड' और 'ल' में अभेद होता है। इसके शीर्षक में 'ड' के स्थान पर 'ल' का प्रयोग किया गया है। लेखक द्वारा इस प्रयोग का प्रयोजन दुःश्रवत्व दोष का परिष्कार एवं पद-लालित्य का लोभ मात्र है। 

    इतिहास गवाह है कि इतिहास में दर्ज होने वाला ऐसा अविस्मरणीय काल अभी तक के इतिहास में नहीं आया। हॉलीवुड की मूवी, फिक्शन या ड्रामे में ही ऐसा गुमान किया जा सकता था। हक़ीक़त में तो इसकी कल्पना, कल्पना ही थी। अब तो विश्वव्यापी चाइना के माल की तरह कोविड-19 भी घर-घर में आसानी से सस्ता व सुलभ हो गया है। ऐसा कलियुग आना ही था, जिसमें सारे रिश्ते-नाते क़ब्र में न जाने कब से पैर लटकाए थे कि ताबूत में आख़िरी कील कोविड ने ठोंक दी और सारे रिश्तों का जनाज़ा एक ही झटके में निकल गया।

      भारतीय दर्शन की थ्योरी (theory) में 'क्षणभंगुर' शब्द का प्रयोग पढ़ा था। आज के दौर में यह क्षणभंगुरता 4G की स्पीड से प्रैक्टिकल रूप धारण कर रही है। अगले क्षण क्या होने वाला है, पता नहीं। एक क्षण पहले जो था,वह रहा नहीं।

     शुरू-शुरू में नई-नवेली दुल्हन की तरह हमारे यहाँ भी ताली-थाली बजाकर, दिया-बत्ती करके इसका भी ख़ूब स्वागत किया गया,पर कितने दिन मुँह दिखाई चलेगी। जैसे नववधू की मेहँदी का रंग उतरते ही चूल्हा-चौका थमाने का बंदोबस्त कर दिया जाता है, वैसे ही कब तक कोई इस मुई महामारी का मुँह देखेगा?अब पुरानी जो हो गई ।

      इंडिया चाइना के बीच तना-तनी के दौरान हमारे यहाँ सारे चाइनीज़ ऐप बैन (ban) कर दिए गए और मेड इन चाइना (made in China) का जोशो-ख़रोश से बहिष्कार होने लगा। इसी बीच तेज़ी से पाँव पसारता हुआ कोरोना मानों मुँह चिढ़ाकर चैलेंज (challenge) देने लगा कि हिम्मत है, तो मुझे भी बैन करके दिखाओ। इतना कहना था कि 'आता मांझी सटक ली', 'यह देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का', यह कहकर हमनें भी मानों इनका चैलेंज स्वीकार कर कमर कस ली। बहुत मुँह देख लिया इस महामारी का। अब तो कोरोना की ऐसी की तैसी! मरना तो एक दिन सबको ही है तो फिर भूख से क्यों मरें । खा-पी कर मरें। आज़ाद पंछी को पिंजरे में कोई कब तक लॉकडाउन (lockdown) कर सकता है? पिंजरा टूटा पंछी फुर्र। 

    सोशल डिस्टेंसिंग (social distancing) को पंचर करते हुए सभी निडर होकर घरों से निकल पड़े। भ्रम में पड़ने कि ज़रूरत नहीं ; मास्क कोरोना के डर से नहीं, बल्कि चालान न कट जाए इस डर से हेलमेट के जैसे लटकाए हुए दिख रहे हैं। जहाँ धर-पकड़ का माहौल देखा, वहाँ मास्कमैन नहीं तो आज़ादमैन। पुलिस वाले भी खुल्ल्मखुल्ला गले में मास्करूपी हार पहने ठग्गू की दुकान में ठंडी लस्सी और गरम समोसे का मुफ़्त में लुत्फ़ उठा रहे हैं। 

    बी०एड्० की परीक्षा में परीक्षार्थियों को बेरोज़गारी का जितना खौफ़ है , उसके आगे कोरोना किस खेत की मूली है। शराब की दुकानों पर उमड़े हुजूम को देखकर कोरोना कंफ्यूज़ (confuse) है कि डरना है कि डराना है।

     पूरे विश्व में जहाँ इसके कारण हाहाकार मचा है,वहीं भारतीयों के हौसले बुलंद हैं। हम इम्यूनिटी (immunity) में नंबर वन हैं। जब हम नल का पानी, कैमिकल (chemical) वाली सब्ज़ी व फल, रोड साइड चाट-पकौड़े, गोलगप्पे आदि खाकर हज़म कर सकते हैं तो कोरोना को हज़म करना कौन सी बड़ी बात है?

    जैसे हाड़ कँपाती सर्दी में छोटे बच्चों के लाख ना-नुकुर करने पर भी आख़िरकार पकड़ कर नहला ही दिया जाता है। पानी ठंडा हो तो क्या कहना! वैसे ही हाथ पैर धोकर फाइनल ईयर के छात्रों को भी ठीक से नहलाने-धुलाने का इंतज़ाम कर ही लिया गया है। ये तो बच्चे हैं, नहाने की अहमियत ये क्या जानें ? हम जानते हैं, इसीलिए तो अपने फ़र्ज़ से फ़ारिग़ हो रहे हैं। 

    कुछ कायर-डरपोक पेरेंट्स (parents) की वजह से स्कूल नहीं खोल पा रहे, नहीं तो अब तक कब का स्कूल खोलकर धुआँधार पढ़ाई चालू हो जाती। न जाने कितने डॉक्टर, इंजीनियर आई.ए.एस. (I.A.S) आदि इसी कोविल काल में पैदा हो जाते।

    बच्चों के न रहने पर भी टीचर नियमित रूप से आकर उनकी अनुपस्थिति में उपस्थिति की कल्पना कर स्कूल को सजा-सँवार रहे हैं। ऑनलाइन टीचिंग (online teaching) में समर्थ टीचर सुबह से शाम तक मोबाइल को सीने से लगाए दिलो जान से अपनी सेवाएँ देने के साथ ही फ़ीस बिल को समय पर पकड़ाना नहीं भूल रहे। साथ ही कभी-कभी लेट फ़ीस, ट्रांसपोर्ट फ़ीस आदि भी वसूलने में कोई भूल-चूक नहीं कर रहे।

     बच्चे जो हर वक़्त मोबाइल पर गेम खेलने के लिए डाँटे-मारे जाते थे, उनकी तो मन माँगी मुराद पूरी हो गई। पूरा का पूरा प्रसाद उनकी झोली में आ गिरा। ऑनलाइन टीचिंग के बहाने जो मोबाइल मिलने का सुअवसर मिला है, पुरानी सारी कसर अब निकाल ले रहे हैं। माँ-बाप मुँह ताकते रह जाते हैं। करें भी तो क्या करें! बड़े बेबस हैं। वीडियो, ऑडियो ऑफ़ करके मज़े से FAU-G खेल रहे हैं। पकड़े जाने पर सॉरी (sorry) बोलना उनका तकिया कलाम बन गया है।

   सभी का शब्दकोशीय ज्ञान बढ़ गया है। नए-नए शब्द सीख गए हैं। लॉकडाउन के कारण वातावरण शुद्ध हो गया है, चिड़ियाँ चहचहा रहीं  हैं, मोर नाच रहे हैं। जंगली जानवर को फ़िक्र होने लगी कि सारे इंसान कहाँ गए? इसका पता लगाने वे भी गाँव-शहरों में दिखाई पड़ रहे हैं।  

    जंगल में मोर नाचा किसने देखा?आजकल के मोर जंगल में नाचने के बजाय भरी महफ़िल में नाचने में ज़्यादा रुचि ले रहे हैं। ज़्यादातर तो लोग नाचने में कम नचाने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं।वे जब भी नाचते हैं तो उनका फ़रमान व अरमान होता है कि लोग हाथ नचा-नचा कर दम मारो दम के जैसे झूम उठें।आँखें बंद करके वाह नाच! वाह नाच! के दम भरें।

      सोशल डिस्टेंसिंग ने सोशल एक्टिविटीज़  पर बैन लगा दिया है। काहिली का आलम ऐसा हो गया है कि जम्हाई आने पर हाथ मुँह को बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे पहुँच ही रहा होता  है,  वैसे ही मोबाइल पर कॉलर ट्यून बज उठती है। एक अरसा हुआ कान में उँगली डाल के खुजाए हुए। यहाँ भी आपस में सोशल डिस्टेंसिंग चल रही है। आँख, कान, नाक सब तो आपस में पहले से ही दूरी बनाए हुए थे। एक हाथ ही था, जो सब से मिलने-मिलाने का काम करता था, उसे भी अब मना कर दिया गया है। 

  कई वर्षों से इलाज कराने के बावजूद नाकाम कई नि:सन्तान दम्पतियों के यहाँ  इसी बीच किलकारी गूँज उठी है। कुछ ने तो इस काल से प्रभावित होकर नवजात का नामकरण भी इस प्रकार कर लिया है- कोरोना कुमारी,लॉकडाउन कुमार आदि। महिलाओं के ब्यूटी पार्लर, शॉपिंग एवं कामवाली बाई के ख़र्चे कम होने से पति राहत की साँस ले रहे हैं। इतनी बचत हो गई है कि प्रॉपर्टी में इन्वेस्ट करने की सोच रहे हैं। सबके असली चेहरे सामने आ रहे हैं। घर में काम और घर के काम करने की आदत पड़ रही है। बर्तन घिस-घिस कर हाथ में घिट्टे पड़ गए,जो दर्जनों दाग़-धब्बे मिटाने की क्रीम लीपने के बाद भी मिटाए नहीं मिट रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों पैदाइशी निशान हैं। 24 घंटे पत्नियों की चौकीदारी में रहते-रहते ऑक्सीजन की कमी महसूस होने पर मित्र-मंडली रूपी वेंटीलेटर की शरण में बतियाकर हालत में सुधार कर तरोताजा़ महसूस कर रहे हैं।पत्नियों की पैनी नजरों से बच पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। हां, कुछ दिन पतियों को घर में रहने में दिक़्क़त ज़रूर महसूस हुई, पर अब  अनलॉक (unlock) हो जाने से पान की गुमटी पर मित्र-मंडली के साथ गिलौरी चबाकर,पान की पीक से दीवारों पर पच्चीकारी कर, बतकही के असीम-आनंद का अनुभव कर रहे हैं। वैसे भी पति प्रजाति ही ऐसी है कि वह पत्नियों को चकमा देने में माहिर होती है। ये चाहे घर में हो या बाहर कुछ न कुछ जुगाड़ लगा ही लेते हैं।

   कुछ नव-युगल जो डेट-फिक्सिंग के मैदान में अभी कच्चे खिलाड़ी थे। पक्के होने की राह  पकड़ उड़ान भरने ही वाले थे कि इस महामारी का एयरपोर्ट (airport) पर जो़र-शोर से इस्तक़बाल हो गया। इनकी तो गई भैंस पानी में। बड़ी मान मनौती कर पहली डेट फ़िक्स हुई थी। ब्रांडेड जींस, शर्ट, घड़ी,चश्मा, डिओडरेंट्स, गिफ्ट्स, न जाने कितने पैसे ख़र्च करके इतना इंतजा़म व इंतजा़र किया था, इस घड़ी का कि यह मनहूस घड़ी आ पड़ी, घड़ों पानी पड़ गया सारे अरमानों पर। कजरारे नैनों के तीखे तीरों ने अब मजबूरी में मोबाइल माध्यम से ही चुभने को मंज़ूरी दे दी है। अब तो ऑनलाइन मोहब्बत ही जीने का सहारा बन गई है।

    जो काम बड़े-बड़े समाज सुधारक न कर सके, वह एक छोटे से कीड़े ने कर दिखाया।शादी ब्याह की शुरुआत ही कैश (cash) के लेन-देन से होती थी जो अब कैशलेस (cashless) हो गई। बारातियों की संख्या में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। दहेज के सामान को भी लोग हाथ लगाने से कतरा रहे हैं।

     शैक्षणिक क्षेत्र में वेबिनार्स (webinars) की तो बाढ़ आ गई है। सभी बहती गंगा में डुबकी लगा रहे हैं। इतने सर्टिफिकेट्स इकट्ठा हो गए हैं कि इन का बोझ अब उठाए नहीं उठ रहा। आगे से इंटरव्यू में जाने पर एक ठेलिया किराए पर लेनी पड़ेगी, जिसमें यह सभी लादकर इंटरव्यूस्थल पर समय से पहुँचा जा सके। 

   सभी अपनी अपनी प्रतिभा व मेधा का सदुपयोग करने में लगे हैं। कोई गोमूत्र को कोरोना मारक बता रहा है तो कोई वैक्सीन ईजाद करने का दावा कर रहा है। ऐसे काल में महान दानियों ने भी दान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।  अपने काका कामदेव जिनके हम परमभक्त हैं, उनसे भी बड़े काम की उम्मीद थी, मेरा मतलब दान की उम्मीद थी। काम तो उन्होंने बड़ा कर दिखाया,कोरोकिल बनाकर, पर दान के नाम पर दाम चस्पा कर कंजूसी कर गए। 

    जहाँ एक ओर बॉर्डर पर सैनिक तैनात हैं,  वहीं दूसरी ओर हमारे डॉक्टर अहर्निश इस महामारी में सेवा में लगे हैं। क्या हुआ, इनमें से एकाध प्रतिशत फ़र्ज़ी रिपोर्ट बनाकर पेशेंट को भर्ती करके मोटी रक़म वसूल रहे हैं। एकाध प्रतिशत तो किडनी आदि निकालकर बड़ी सफ़ाई से डेड बॉडी पैक कर के इन अंगों की तस्करी से संपन्न हो रहे हैं। एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है, हालाँकि इनके इस कारनामे से बाक़ी डॉक्टर्स के ऊपर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वे देशसेवी समाज सेवा में लगातार लगे हैं। इलाज के दौरान न जाने कितने डॉक्टर अपनी जान की परवाह किए बगैर स्वयं संक्रमित हो गए और अपनी जान तक क़ुर्बान करने में पीछे नहीं हटे।

    सब अपने-अपने काम में पूर्ववत लगकर  दिन-दूनी, रात-चौगुनी तरक़्क़ी कर रहे हैं।चुग़लख़ोरों की चुग़ली और भी चटख़ हो गई है। चोर पहले से ही मास्क व गलब्स पहनते थे लेकिन अब सैनिटाइजर का भी बक़ायदा एहतेमाम कर रहे हैं। चारों तरफ़ पसरा सन्नाटा उनके धंधे में चार-चाँद लगा रहा है। सब कुछ ऑनलाइन होने से हैकर्स की चाँदी हो गई है। बड़े-बड़ों के अकाउंट हैक हो रहे हैं।

   पुलिस अपना काम ईमानदारी से कर रही है।  बड़े-बड़े बदमाश दबोचे जा रहे हैं। शातिर अपराधी भी लगातार मैदान में डटे हुए हैं। मौक़ा मिलते ही कारनामों की हैट्रिक लगा रहे हैं। कई निर्भय निर्भीक होकर इस काल में भी निर्भया जैसे कांड को अंजाम देने से बाज़ नहीं आ रहे। तेजी़ से गिरती हुई इंसानियत की तरह गिरती हुई जीडीपी को लोग सहारा देने में लगे हुए हैं।कुछ अवसरवादी इस सुअवसर को पाकर लगातार घोटालों के चौके-छक्के लगा रहे हैं। नकली दवा, मिठाई, खोया आदि अब यह पुरानी बात हो गई है, आजकल तो नकली सैनिटाइज़र (sanitizer),मास्क, विटामिन-सी आदि फैशन में है। अब तो सब्ज़ी धोने के लिए भी कैमिकल ईजाद कर लिया है, अच्छी कमाई हो रही है।

   अमीर-ग़रीब सभी एक लाइन में हैं। यहां कोई रिज़र्वेशन नहीं; पक्षपात नहीं। अक्कड़-बक्कड़ का खेल चल रहा है, जिस पर उँगली टिक जाए। ओलंपिक्स खेलों में पदक तालिका में तेज़ी  से बढ़त बनाते हुए भारत दूसरे नंबर पर पहुँच गया है। पहले नंबर के लिए मुक़ाबला दिलचस्प और कड़ा होता नज़र आ रहा है।

   ऐसा लगता है मानो मरने का सीज़न आ गया है, लगन सहालग चल रही है। इधर बाढ़ भी आ रही है, भूकंप के झटके भी महसूस हो रहे हैं,बिजली भी कड़क रही है, बवंडर (cyclone) भी आ रहें हैं, न जाने कहाँ से पता पूछते-पूछते टिड्डी दल भी आ पहुँचा।

   उधर मशहूर नामी-गिरामी हस्तियों ने दुनिया को अलविदा कह दिया। एक्सीडेंट्स भी हो रहे हैं। एक दूसरे को मारने-मरने का चलन तो पहले से ही चला आ रहा है, इस काल में भी यथावत चालू है। बचे-खुचे लोग आत्महत्या कर ले रहें हैं।  बाक़ी लोग जीते जी मर रहे हैं या लोग उन्हें जीते जी मार रहे हैं।

   वस्तुतः यह अभूतपूर्व काल उस असीम शक्ति के दरबार में लब्बैक कहने का है और झुक जाने का है। आपसी वैर-वैमनस्य,कटुता-कालुष्य, ईर्ष्या-द्वेष भुलाकर; परस्पर प्रेम, सौहार्द्र, समन्वय से  एक-जुट, एक-साथ, एक-दूसरे के सहयोग करने का समय है।

   हम आगे आने वाली पीढ़ी के सामने  कायर का दर्जा हासिल करना चाहते हैं या इतिहास में  शौर्य-पराक्रम की कथा का विषय बनना चाहते हैं।

      हम हिंदुस्तानियों के हौसले आला हैं, हमारी हिम्मत की दाद देनी ही पड़ेगी। देखते जाइए,   आख़िरकार है तो चाइना का माल। कब तक हिंदुस्तानियों के सामने टिक पाएगा या इन वीर जवानों, बुज़ुर्गों, महिलाओं, बच्चों के जज़्बे को देखकर ख़ुद ही घुटने टेक देगा। सुनने में आया है कि यह म्यूटेट होकर कमज़ोर पड़ गया है।पहले शेर था अब बिल्ली बन गया है। देखते  हैं, ऊँट किस करवट बैठता है? आगे की घटना का हाल-चाल लेकर फिर हाज़िर होंगे, कोविल-काल-2 में। तब तक के लिए घर पर रहें, स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें। जय-हिंद ! 

Thursday, September 10, 2020

Rights of Kavi

               नियतिकृतनियमरहितां 
               ह्लादैकमयीमनन्यपरतंत्राम_। 
               नवरसरुचिरां निर्मिति -
               मादधती भारती कवेर्जयति।। 

अर्थात :- कवि की वाणी, भाग्य-कर्म के नियम से बंधन मुक्त है, एकमात्र आनंद का स्रोत है, पूर्णतः स्वतंत्र है, नौ रसों (श्रृंगार,करुण, अद्भुत आदि) से सुन्दर काव्य के रूप में परिणत होती हुई  सर्वोत्कृष्ट रूप धारण करती है।

    इसका मतलब यह है कि कवि या लेखक जो कुछ भी लिखता है, उस पर संसार का कोई नियम लागू नहीं होता, वह सिर्फ़ सहृदय पाठक के आनंद के लिए काव्य लिखता है, उसकी नायिका परी बन कर आसमान में उड़ सकती है, उसका नायक आसमान से तारे तोड़ कर ला सकता है, वह तोते में किसी की जान क़ैद कर सकता है, वह दिन को रात, रात को दिन कर सकता है, वह ज़मीन में तारे आसमान में फूल उगा सकता है, वह तालाब का पानी बहा सकता है, झरने का पानी रोक सकता है,....,  वह जैसा लिखना चाहे, लिख सकता है, उस पर किसी का कोई अंकुश,  कोई बंदिश नहीं। प्रेम,क्रोध,आश्चर्य, उत्साह, शोक आदि सभी भावों के नए-नए प्रयोग से वह एक नए  रोचक, सुन्दर और उत्तम काव्य को लिख कर अमर हो जाता है। 

Wednesday, September 9, 2020

Power of Kavi

  अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः। 
   यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।। 

    अर्थात :- काव्य रूपी संसार का एकमात्र निर्माता कवि होता है, वह स्वेच्छा से इस काव्य-संसार को अपनी रूचि के अनुसार बदल कर लिख सकता है। 

   इसका मतलब यह है कि कवि या लेखक जब कोई काव्य (निबंध, कहानी, उपन्यास, कविता आदि काव्य की सभी विधाएँ ) लिखता है, तो वह पूरी तरह लिखने के लिए आज़ाद होता है। वह अपनी प्रतिभा और कल्पना के ज़रिए आपने काव्य को अपनी मरज़ी से जो संसार में सम्भव  न हो उसे भी काव्य में व्यंग्य, अलंकार आदि के माध्यम से वर्णन करने में स्वतंत्र होता है। 

Tuesday, September 1, 2020

Primary Master

    प्राइमरी का मास्टर : चिराग़ का जिन्न

नोट :- इस लेख को लिखने की लेखक की क़तई मंशा न थी, पर तजुर्बों का घड़ा इतना भर गया कि जज़्बात का जल लाख रोकने पर भी न रुका, आख़िरकार बह ही गया। लेखक के इन जज़्बातों का मक़सद हरगिज़ किसी के जज़्बात को तकलीफ़ पहुँचाना नहीं है, अगर ग़लती से भी ऐसी ग़लती हो जाती है, तो इसके लिए  उस दुःखी दिल से तहे-दिल से माफ़ी की दरकार है। 


   बचपन में एक जिन्न की कहानी सुनी थी जो चिराग़ घिसने पर बाहर निकलता था और कहता था,  ‘क्या हुक़्म मेरे आक़ा’। दुनिया का कोई भी काम उससे करवा लो चुटकी बजाते ही पूरा। यद्यपि इस कहानी का हक़ीक़त से कोई वास्ता नहीं, लेकिन बाल-मन तो निश्छल, चंचल व हठी होता है। ढूँढने लगा इस जिन्न जैसा व्यक्तित्व। कई वर्षों के शोध के उपरांत आख़िरकार उसने इस जिन्न से  मिलती-जुलती शख़्सियत खोज ही डाली, लेकिन इस खोज में इतना समय लग गया कि वह बाल-मन अब प्रौढ़ हो चुका है।  देखिए जनाब! खोज के भी क्या लाया है,  ‘तुरुप का इक्का’ जो शायद ही किसी बुड़बक के गले से नीचे न उतरे।  इस कहानी के जिन्न का यदि कोई सानी है, तो वह एकमात्र किरदार है,  ‘प्राइमरी का मास्टर’ TRIPLE -K (KKK) मतलब ‘कोई भी काम करवा लो’। ये  तो MTS (Multi purpose service ) हैं।  वैसे तो इनकी नियुक्ति कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों को पढ़ाने एवं अन्य शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए हुई है, जिससे प्रारंभिक स्तर से ही बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके, लेकिन इनकी प्रतिभा की इयत्ता (सीमा)इतनी सीमित कहाँ?

  इनमें से कुछ तो इतने प्रतिभाशाली हैं कि अगर बाबूगीरी के चलते लॉक-बुक में ब्यौरा न भरना होता तो क़सम से अब तक सूर-तुलसी जैसे न जाने कितने महाकाव्य लिख जाते।  ‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़,  कोरा ही रह गया’ की जगह ‘मेरा जीवन निरा काग़ज़ निरा ही रह गया’।  बेचारे की प्रतिभा परवान चढ़ने के पहले ही  परवाज़ कर जाती है।

   इन्हें केवल अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्न का उत्तर ही नहीं देना है, बल्कि समय-समय पर तथाकथित अधिकारी के बचकाने  सवालों का जवाब भी भरी कक्षा में अपने ही छात्रों के सामने देना पड़ता है। कभी-कभी न दे पाने की हालत में प्रिंट-मीडिया व सोशल-मीडिया में अपनी इज़्ज़त का फ़ालूदा निकलते हुए भी देखना पड़ता है। इसे भी यह बड़े धैर्य व संयम के साथ हंसते-मुस्कुराते हुए,  यादगार लम्हे की  तरह गुज़ार ही देते हैं।  

   न जाने ऐसे कितने अधिकारियों की नींव रखने वाला यह मास्टर इनके दौरे की सूचना मिलते ही पत्ते के जैसा थर-थर काँपने लगता है। बुद्धि-विवेक सब शून्य हो जाता है कि उसका क्या ओहदा  है,  उसके पद की  क्या गरिमा है। शास्त्रों में गुरु को गोविंद से आगे ‘गुरूर्बह्मा गुरुर्विष्णुः’ बताया गया है तो क्या उसके ऊपर भी कोई निकल सकता है।

     अधिकारी, सभासद, प्रधान आदि ही नहीं बल्कि गाँव के हर व्यक्ति को इन्हें चेक करने की खुली आज़ादी है। वह कब आता-जाता है? क्या पढ़ाता है? क्या खाता है? वग़ैरह-वग़ैरह। लोकतंत्र की सुन्दर झाँकी यहाँ देखी जा सकती है। 

   कई मास्टर ऐसे  भी हैं जो, अधिकारियों के रुबाब व फटकार को दिल पर ले लेते हैं और अधिकारी बनने की ठान लेते हैं। सभी को यह बात पता है कि जब ये कुछ करने कि ठान लेते हैं,  फिर उसके बाद तो ये अपने आप की भी नहीं सुनते।  

   कुछ ऐसे भी सुकुमार मास्टर हैं, जो प्राइमरी के  चक्रव्यूह में फँसकर, काम के बोझ के मारे गधे जैसे बेचारे होकर, आधुनिक अभिमन्यु बनकर पूरी तरह इस जंजाल से निकलकर ही  राहत की सांस लेते है। यहाँ नौकरी करने से ज़्यादा आसान इनके लिए सिविल सेवा की तैयारी करना है, उसके बाद तो मौज ही मौज। 

   आइए, ज़रा एक नज़र दूसरे महकमों पर डालते हैं। एक आंख का डॉक्टर है, अगर उसके पड़ोस वाली नाक के बारे में पूछ लो तो नाक-भौं सिकोड़कर E.N.T. का पता बता देता है। गैस्ट्रोलॉजिस्ट (gastrologist ) से पेट के अलावा पैर की चर्चा छेड़ दो तो ऐसे घूर कर देखता है कि पूरा पैर ही सुन्न हो जाए। सर्जन (M.S.)से चीर-फाड़ के अलावा ख़ाली दवा लेने पहुंच जाओ तो पूरी फीस लेकर एम.डी.(M.D.) की राह बता देता है। यहां तक कि बिना पैथोलॉजी की रिपोर्ट के डॉक्टर साहब की क़लम तक नहीं हिलती।  पैथोलॉजिस्ट से रिपोर्ट के बारे में पूछो तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करने की सलाह फ्री में दे देता है इसके अलावा एक भी लफ्ज़ फ़िज़ूलख़र्ची नहीं।

   ऑटोमोबाइल इंजीनियर,  सॉफ्टवेयर के बारे में हाथ खड़ा कर देगा। बॉटनी के प्रोफेसर से ज़ूलॉजी के बारे में पूछने पर पल्ला वे झाड़ लेंगे। वकील साहब जो क्रिमिनल लॉयर हैं,  वह फैमिली कोर्ट के झगड़े सुलझाने में ख़ुद ही उलझ जाएँगे। वैज्ञानिक, जो चूहे पर रिसर्च कर रहा है वह चूहा छोड़ बिल्ली को हाथ न लगाएगा । एक पुलिस वाले से अगर कहें,भैया घर-घर जाकर दो बूँद ज़िन्दगी की पिलानी है,तो तुरंत वर्दी  का रौब दिखाकर हथकड़ी दिखा देगा। और महकमों का हाल भी कुछ इसी तरह है। 

   इन सब के उलट हमारे मास्टर जी शायद ही कोई ऐसा काम हो जो वह न कर सकें। इनकी डिक्शनरी में नहीं तो है ही नहीं।  एक मास्टर होने  के साथ-साथ बावर्ची, बाबू, चपरासी, चौकीदार,  दुकानदार, अधिकारी कंपाउंडर,  सेल्समैन वग़ैरह-वग़ैरह सभी की भूमिका निभाने में हरफ़नमौला हैं ।एक बैठक में ही ये सारे सुर साध लेते हैं और ऐसे-ऐसे काम करने निकल पड़ते हैं, जिसका इन्हें कोई तजुर्बा नहीं,  लेकिन जब यह करने की ठान लेते हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। मानों संसार के सारे कामों का ठेका ले रखा है।  इसीलिए तो सारे विभाग की आंखें इन पर ही गड़ी रहती हैं। सौभाग्य से मास्टर रूपी जादुई चिराग़ की खोज हो गई है। ऐसा लग रहा है,  मानों क़ारून का खज़ाना हाथ लग गया, क्या पाएँ क्या करवा लें। ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे। 

   कहानी में सुना था कि जब जिन्न से छलनी में पानी भरने के लिए कहा गया तो उसने अपने हाथ खड़े कर दिए।इस काम को करने के लिए सभी महकमे को इकट्ठा करके यदि सवाल किया जाए तो प्राइमरी का मास्टर ही सबसे पहले अपने हाथ खड़े करेगा। न केवल हाथ खड़े करेगा बल्कि हमें तो पूरा भरोसा है कि कोई न कोई युक्ति निकाल ही लेगा क्योंकि गांव में मोबाइल एवं  नेटवर्क न होने पर भी जब वह ऑनलाइन टीचिंग को अंजाम दे सकता है भैया!तो छलनी में पानी भरना उसके लिए कौन सा बड़ा काम है। 

   प्राइमरी का मास्टर एक स्कैनर (scanner)  भी है, जो बिना किसी PPE KIT के  केवल एक मास्क और एक शीशी सैनिटाइजर के बल पर सामने आने वाले व्यक्ति की बॉडी स्कैन करके यह बता सकता है कि अमुक व्यक्ति में संक्रमण की संभावना है या वह संक्रमित है कि नहीं।  इसने तो आरोग्य सेतु ऐप को भी रेटिंग(rating) में पछाड़ दिया है। तभी तो अब घर-घर जाकर कोविड- 19 के पेशेंट को ढूँढ़ने की ज़िम्मेदारी भी इनके कंधों पर मढ़ दी गई है। यह क़ुदरत का एक करिश्माई नमूना है। जहाँ हर तरफ़ हर किसी को संक्रमण का ख़तरा है, वहीं ये रणबाँकुरे  किसी भी कोविड प्रभावित रण-क्षेत्र में सरफ़रोशी की  तमन्ना लिए हुए कूद पड़े हैं। ऐसा लगता है,  मानों यह संक्रमण इनके लिए बना ही नहीं। आज अगर अमेरिका को इनके जादुई व्यक्तित्व की ज़रा भी भनक लग जाए तो क़सम से इन सभी का बाइज़्ज़त  अपने मुल्क़ में किसी भी क़ीमत पर आयात (Import )कर लेंगे।  सब के सब मुँह ताकते रह जाएँगे। इनकी इस प्रतिभा को देखकर  चिराग़ का जिन्न इतना अभिभूत है कि मास्टर जी के चरण स्पर्श करने के लिए लालायित है। इंसान के साथ-साथ अब तो प्राइमरी का मास्टर जिन्नों का भी  गुरु हो गया है। धन्य है! यह अद्भुत व्यक्तित्व!

   इसके अलावा महिला मास्टरनियों का उत्साह तो देखते ही बन पड़ता है। दो-दो महीने के बच्चों को टांग कर दो-दो सौ किलोमीटर से दौड़-दौड़ कर कोरोना काल में ड्यूटी निभाने पहुँच रही हैं। यह आज के दौर की झाँसी की रानी से कम नहीं है। इनकी कर्तव्यनिष्ठा ममता पर भारी पड़ रही है।

  कुछ कमसिन कुमारियाँ अपने कई सिरफिरे आशिक़ों की आँखों में धूल झोंक कर दिल में ख़ौफ़ और आँखों में समय से स्कूल पहुँचने का जज़्बा लिए स्कूटी पर सवार होकर तूफ़ानी गति से उड़ान भर रहीं हैं। इनकी स्पीड देखकर जिन्न का भी सर चकरा रहा है।

  ऐसा समर्पण और कहां? ये सब दृश्य देखकर तो चिराग़ का जिन्न भी चुल्लू भर पानी में डूब मरने की सोच रहा है।

हक़ीक़त तो यह है, कुछ भी करवा लो बिना उफ़ किये यह तो कर ही देंगे, क्यूँकि सारी दुनिया का बोझ ये उठाते हैं। इनका चयन कई कठिन परीक्षा के स्तर से गुजरने पर होता है।इनमें से कई नेट (NET), जे.आर.एफ़.(JRF)पीएच.डी.(Ph.D.)डिग्री धारी हैं। कई आई.ए.एस., डॉक्टर, इंजीनियर बनते-बनते रह गए।कई वर्षों की तैयारी के बाद भाग्य का साथ न दे पाने के कारण न्यूनतम अर्हता से कहीं अधिक शिक्षित एवं योग्य अध्यापक इस समय प्राइमरी टीचर हैं, लेकिन जब हमारे समाज में प्रतिष्ठा की बात आती है,  तो अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर आदि को जितनी इज़्ज़्त बख़्शी जाती है, इन सब में सबसे निचले पायदान पर प्राइमरी का टीचर ही आता है।उसे वह सम्मान नहीं दिया जाता जिसका हक़ीक़त में वह हक़दार है।  तकलीफ़देह  बात तो यह है कि इतना काम करने के बाद भी इन्हें क्या मिलता है सिर्फ़  ज़िल्लत ही ज़िल्लत।कामचोर! बैठकर तनख़्वाह गिनने वालों में शुमार किया जाता है। वह सज्जन जो नियुक्ति व सैलरी निकलवाने के नाम पर हज़ारों रुपए की रिश्वत लेता है,वह बाबू मोशाय जो बच्चे की सी. सी. एल.(CCL) एप्लीकेशन अप्रूव करवाने, चयन-वेतनमान लगवाने के लिए गिद्ध के जैसे घात लगाए बैठा रहता है।यहां तक कि अपना फ़ालतू भी फाइल इस टेबल से उस टेबल तक सरकाने के लिए अपनी'चहास'उजागर करता है और जब तक ये नहीं बुझती तब तक टरकाने में  कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है।ऐसे में सभी को आपस में मिल-जुल कर इनके लिए भी कोई सुन्दर विशेषण ढूँढ़ना चाहिए। 

  अपने नियुक्ति पत्र में दिए गए कर्तव्यों को ताक़ पर रखकर जितना काम प्राइमरी का मास्टर अकेले करता है, अगर इन सब कामों के लिए  रोज़गार के विज्ञापन जारी किए जाएँ, तो हमारे देश के सारे बेरोज़गार खप जाएँगे और लोगों की कमी पड़ जाएगी तब भी नौकरियां बची रहेंगी।        कोविड काल में भी जहां सभी स्कूल कॉलेज बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं।  वहीं प्राइमरी के मास्टर को रोज़ आना है बच्चे हों या न  हों।  स्कूल आकर बाउंड्री में गाय, भैंस, बकरी आदि न घुस जाए; उसे रखाना है।नियमित रूप से घास छीलनी है,  झाड़ू देना है, पेड़ लगाना है एवं उनकी गुड़ाई- छँटाई करनी है आदि-आदि।  बच्चों के न रहने पर यह सब Innovative और  Interesting  काम करने हैं।  घर-घर जाकर मिड-डे-मील का पैसा व राशन बँटवाना है। इसके बाद तो अब घर-घर जाकर भोजन बनाना ही बाक़ी रह गया है। 

  'अतिथि देवो भव' का अनुपालन करते हुए, छात्र  रूपी मेहमान के स्कूल पहुंचने पर नाश्ते में दूध, फल, मेवा-मिश्री का इंतज़ाम करना और दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी इनके ही ज़िम्मे है। कुछ दिन बाद बच्चा सोकर, उठकर स्कूल चला आएगा। ब्रश कराने, नहलाने-धुलाने, ड्रेस पहनाने की ज़िम्मेदारी भी मास्टर को सौंप दी जाएगी और अगर ये जुनूनी जिन्न की तरह हर काम को अंजाम देते रहे, तो वह दिन दूर नहीं कि जब बच्चा पैदा होते ही इनके हवाले कर दिया जायेगा।  

 इनमें से किसी भी काम के मना करने पर एक दिन का वेतन काटने की घुड़की या वेतन रोकने की धमकी ही इस बेचारे के लिए काफ़ी  है। क्या  इनका ज़मीर नहीं है?  क्या इनका स्वाभिमान नहीं है? जो इतनी  लानत-मलामत बर्दाश्त करते रहते हैं।

   स्वाभिमान तो  है,  पर इसके भी ऊपर उनका एक परिवार है। जिससे यह बहुत प्रेम करते हैं। उनके कँधों पर माता-पिता की दवा की ज़िम्मेदारी,  पत्नी का करवा-चौथ, बच्चों के स्कूल की फीस, रक्षाबंधन, भैया-दूज आदि  त्यौहार, बिजली का बिल,  कार-लोन, मकान का किराया वग़ैरह तमाम ख़र्च एवं ज़िम्मेदारियों का बोझ है। एक  दिन का वेतन कटना बहुत माइने रखता है और वेतन का रुकना तो सारी अर्थव्यवस्था को चरमरा देता है।कुछ तो स्पष्टीकरण देते-देते कंगाल हो रहे हैं।अब तो  उधार लेने की नौबत आ गई है। यहाँ स्पष्टीकरण को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं। सभी पढ़े-लिखे समझदार हैं । 

    जहां तक मेरे सामाजिक ज्ञान की सीमा है तो अनुभव कहता है कि इनका परिवार सुखी व संतुष्ट रहता है, अपेक्षाकृत बड़े-बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी के परिवार की तुलना में। यहां तक कि कई लोग इतने ऊँचे ओहदे पर      पहुँचने के बाद भी  घरेलू-कलह आदि से तंग आकर तथा जीवन से असंतुष्ट होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं। फिल्मी पर्दे का हीरो भी रियल लाइफ़ में ज़ीरो निकल जाता है।

   माशा-अल्लाह! नज़र न लगे प्राइमरी के मास्टर की जिजीविषा को। आज तक मेरे संज्ञान में एक भी आत्महत्या या घरेलू झगड़े का केस  सामने नहीं आया। थोड़ी बहुत तो टुन-फुन  सभी जगह है, मगर बात हद से बढ़ती हुई नहीं दिखती। हाल ही में इनके ऊपर अत्याचार एवं उत्पीड़न की पराकाष्ठा इतनी बढ़ गई  कि वेतन रुकने एवं प्रताड़ित होने पर,  ये मास्टर सत्याग्रह के द्वारा    गाँधीगिरी करने पर मजबूर हो गये हैं, लेकिन  आत्महत्या के बारे में नहीं सोच सकते । सलाम है ऐसे जज़्बे को। शत-शत प्रणाम। कोटि-कोटि नमन।

 आशा करते हैं कि हमारे यह पूजनीय प्राइमरी के मास्टर ऐसे ही अनेक अधिकारियों की नींव  रखते रहेंगे जो समय-समय पर इन्हें  मज़म्मत का मुरब्बा और घुड़की की घुट्टी खिला-पिला  कर अपना सारा काम करवाते रहेंगे। यह भी भीगी-बिल्ली बनकर एवं खीस निपोरकर ख़ुशी- ख़ुशी हर काम करते रहेंगे। आख़िर में इनकी तरफ़ से बॉलीवुड के एक मशहूर गाने की  पैरोडी पेश है-

 हमने  देखें  हैं  इन आंखों  में  छलकते आँसू,   मास्टर को मास्टर ही रहने दो कोई काम ना दो।   हैं  ये  इंसान  इन्हें  इंसान  बने  रहने  दो ,           रब के वास्ते जिन्न का इन्हें नाम ना  दो ।