प्राइमरी का मास्टर : चिराग़ का जिन्न
नोट :- इस लेख को लिखने की लेखक की क़तई मंशा न थी, पर तजुर्बों का घड़ा इतना भर गया कि जज़्बात का जल लाख रोकने पर भी न रुका, आख़िरकार बह ही गया। लेखक के इन जज़्बातों का मक़सद हरगिज़ किसी के जज़्बात को तकलीफ़ पहुँचाना नहीं है, अगर ग़लती से भी ऐसी ग़लती हो जाती है, तो इसके लिए उस दुःखी दिल से तहे-दिल से माफ़ी की दरकार है।
बचपन में एक जिन्न की कहानी सुनी थी जो चिराग़ घिसने पर बाहर निकलता था और कहता था, ‘क्या हुक़्म मेरे आक़ा’। दुनिया का कोई भी काम उससे करवा लो चुटकी बजाते ही पूरा। यद्यपि इस कहानी का हक़ीक़त से कोई वास्ता नहीं, लेकिन बाल-मन तो निश्छल, चंचल व हठी होता है। ढूँढने लगा इस जिन्न जैसा व्यक्तित्व। कई वर्षों के शोध के उपरांत आख़िरकार उसने इस जिन्न से मिलती-जुलती शख़्सियत खोज ही डाली, लेकिन इस खोज में इतना समय लग गया कि वह बाल-मन अब प्रौढ़ हो चुका है। देखिए जनाब! खोज के भी क्या लाया है, ‘तुरुप का इक्का’ जो शायद ही किसी बुड़बक के गले से नीचे न उतरे। इस कहानी के जिन्न का यदि कोई सानी है, तो वह एकमात्र किरदार है, ‘प्राइमरी का मास्टर’ TRIPLE -K (KKK) मतलब ‘कोई भी काम करवा लो’। ये तो MTS (Multi purpose service ) हैं। वैसे तो इनकी नियुक्ति कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों को पढ़ाने एवं अन्य शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए हुई है, जिससे प्रारंभिक स्तर से ही बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके, लेकिन इनकी प्रतिभा की इयत्ता (सीमा)इतनी सीमित कहाँ?
इनमें से कुछ तो इतने प्रतिभाशाली हैं कि अगर बाबूगीरी के चलते लॉक-बुक में ब्यौरा न भरना होता तो क़सम से अब तक सूर-तुलसी जैसे न जाने कितने महाकाव्य लिख जाते। ‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़, कोरा ही रह गया’ की जगह ‘मेरा जीवन निरा काग़ज़ निरा ही रह गया’। बेचारे की प्रतिभा परवान चढ़ने के पहले ही परवाज़ कर जाती है।
इन्हें केवल अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्न का उत्तर ही नहीं देना है, बल्कि समय-समय पर तथाकथित अधिकारी के बचकाने सवालों का जवाब भी भरी कक्षा में अपने ही छात्रों के सामने देना पड़ता है। कभी-कभी न दे पाने की हालत में प्रिंट-मीडिया व सोशल-मीडिया में अपनी इज़्ज़त का फ़ालूदा निकलते हुए भी देखना पड़ता है। इसे भी यह बड़े धैर्य व संयम के साथ हंसते-मुस्कुराते हुए, यादगार लम्हे की तरह गुज़ार ही देते हैं।
न जाने ऐसे कितने अधिकारियों की नींव रखने वाला यह मास्टर इनके दौरे की सूचना मिलते ही पत्ते के जैसा थर-थर काँपने लगता है। बुद्धि-विवेक सब शून्य हो जाता है कि उसका क्या ओहदा है, उसके पद की क्या गरिमा है। शास्त्रों में गुरु को गोविंद से आगे ‘गुरूर्बह्मा गुरुर्विष्णुः’ बताया गया है तो क्या उसके ऊपर भी कोई निकल सकता है।
अधिकारी, सभासद, प्रधान आदि ही नहीं बल्कि गाँव के हर व्यक्ति को इन्हें चेक करने की खुली आज़ादी है। वह कब आता-जाता है? क्या पढ़ाता है? क्या खाता है? वग़ैरह-वग़ैरह। लोकतंत्र की सुन्दर झाँकी यहाँ देखी जा सकती है।
कई मास्टर ऐसे भी हैं जो, अधिकारियों के रुबाब व फटकार को दिल पर ले लेते हैं और अधिकारी बनने की ठान लेते हैं। सभी को यह बात पता है कि जब ये कुछ करने कि ठान लेते हैं, फिर उसके बाद तो ये अपने आप की भी नहीं सुनते।
कुछ ऐसे भी सुकुमार मास्टर हैं, जो प्राइमरी के चक्रव्यूह में फँसकर, काम के बोझ के मारे गधे जैसे बेचारे होकर, आधुनिक अभिमन्यु बनकर पूरी तरह इस जंजाल से निकलकर ही राहत की सांस लेते है। यहाँ नौकरी करने से ज़्यादा आसान इनके लिए सिविल सेवा की तैयारी करना है, उसके बाद तो मौज ही मौज।
आइए, ज़रा एक नज़र दूसरे महकमों पर डालते हैं। एक आंख का डॉक्टर है, अगर उसके पड़ोस वाली नाक के बारे में पूछ लो तो नाक-भौं सिकोड़कर E.N.T. का पता बता देता है। गैस्ट्रोलॉजिस्ट (gastrologist ) से पेट के अलावा पैर की चर्चा छेड़ दो तो ऐसे घूर कर देखता है कि पूरा पैर ही सुन्न हो जाए। सर्जन (M.S.)से चीर-फाड़ के अलावा ख़ाली दवा लेने पहुंच जाओ तो पूरी फीस लेकर एम.डी.(M.D.) की राह बता देता है। यहां तक कि बिना पैथोलॉजी की रिपोर्ट के डॉक्टर साहब की क़लम तक नहीं हिलती। पैथोलॉजिस्ट से रिपोर्ट के बारे में पूछो तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करने की सलाह फ्री में दे देता है इसके अलावा एक भी लफ्ज़ फ़िज़ूलख़र्ची नहीं।
ऑटोमोबाइल इंजीनियर, सॉफ्टवेयर के बारे में हाथ खड़ा कर देगा। बॉटनी के प्रोफेसर से ज़ूलॉजी के बारे में पूछने पर पल्ला वे झाड़ लेंगे। वकील साहब जो क्रिमिनल लॉयर हैं, वह फैमिली कोर्ट के झगड़े सुलझाने में ख़ुद ही उलझ जाएँगे। वैज्ञानिक, जो चूहे पर रिसर्च कर रहा है वह चूहा छोड़ बिल्ली को हाथ न लगाएगा । एक पुलिस वाले से अगर कहें,भैया घर-घर जाकर दो बूँद ज़िन्दगी की पिलानी है,तो तुरंत वर्दी का रौब दिखाकर हथकड़ी दिखा देगा। और महकमों का हाल भी कुछ इसी तरह है।
इन सब के उलट हमारे मास्टर जी शायद ही कोई ऐसा काम हो जो वह न कर सकें। इनकी डिक्शनरी में नहीं तो है ही नहीं। एक मास्टर होने के साथ-साथ बावर्ची, बाबू, चपरासी, चौकीदार, दुकानदार, अधिकारी कंपाउंडर, सेल्समैन वग़ैरह-वग़ैरह सभी की भूमिका निभाने में हरफ़नमौला हैं ।एक बैठक में ही ये सारे सुर साध लेते हैं और ऐसे-ऐसे काम करने निकल पड़ते हैं, जिसका इन्हें कोई तजुर्बा नहीं, लेकिन जब यह करने की ठान लेते हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। मानों संसार के सारे कामों का ठेका ले रखा है। इसीलिए तो सारे विभाग की आंखें इन पर ही गड़ी रहती हैं। सौभाग्य से मास्टर रूपी जादुई चिराग़ की खोज हो गई है। ऐसा लग रहा है, मानों क़ारून का खज़ाना हाथ लग गया, क्या पाएँ क्या करवा लें। ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे।
कहानी में सुना था कि जब जिन्न से छलनी में पानी भरने के लिए कहा गया तो उसने अपने हाथ खड़े कर दिए।इस काम को करने के लिए सभी महकमे को इकट्ठा करके यदि सवाल किया जाए तो प्राइमरी का मास्टर ही सबसे पहले अपने हाथ खड़े करेगा। न केवल हाथ खड़े करेगा बल्कि हमें तो पूरा भरोसा है कि कोई न कोई युक्ति निकाल ही लेगा क्योंकि गांव में मोबाइल एवं नेटवर्क न होने पर भी जब वह ऑनलाइन टीचिंग को अंजाम दे सकता है भैया!तो छलनी में पानी भरना उसके लिए कौन सा बड़ा काम है।
प्राइमरी का मास्टर एक स्कैनर (scanner) भी है, जो बिना किसी PPE KIT के केवल एक मास्क और एक शीशी सैनिटाइजर के बल पर सामने आने वाले व्यक्ति की बॉडी स्कैन करके यह बता सकता है कि अमुक व्यक्ति में संक्रमण की संभावना है या वह संक्रमित है कि नहीं। इसने तो आरोग्य सेतु ऐप को भी रेटिंग(rating) में पछाड़ दिया है। तभी तो अब घर-घर जाकर कोविड- 19 के पेशेंट को ढूँढ़ने की ज़िम्मेदारी भी इनके कंधों पर मढ़ दी गई है। यह क़ुदरत का एक करिश्माई नमूना है। जहाँ हर तरफ़ हर किसी को संक्रमण का ख़तरा है, वहीं ये रणबाँकुरे किसी भी कोविड प्रभावित रण-क्षेत्र में सरफ़रोशी की तमन्ना लिए हुए कूद पड़े हैं। ऐसा लगता है, मानों यह संक्रमण इनके लिए बना ही नहीं। आज अगर अमेरिका को इनके जादुई व्यक्तित्व की ज़रा भी भनक लग जाए तो क़सम से इन सभी का बाइज़्ज़त अपने मुल्क़ में किसी भी क़ीमत पर आयात (Import )कर लेंगे। सब के सब मुँह ताकते रह जाएँगे। इनकी इस प्रतिभा को देखकर चिराग़ का जिन्न इतना अभिभूत है कि मास्टर जी के चरण स्पर्श करने के लिए लालायित है। इंसान के साथ-साथ अब तो प्राइमरी का मास्टर जिन्नों का भी गुरु हो गया है। धन्य है! यह अद्भुत व्यक्तित्व!
इसके अलावा महिला मास्टरनियों का उत्साह तो देखते ही बन पड़ता है। दो-दो महीने के बच्चों को टांग कर दो-दो सौ किलोमीटर से दौड़-दौड़ कर कोरोना काल में ड्यूटी निभाने पहुँच रही हैं। यह आज के दौर की झाँसी की रानी से कम नहीं है। इनकी कर्तव्यनिष्ठा ममता पर भारी पड़ रही है।
कुछ कमसिन कुमारियाँ अपने कई सिरफिरे आशिक़ों की आँखों में धूल झोंक कर दिल में ख़ौफ़ और आँखों में समय से स्कूल पहुँचने का जज़्बा लिए स्कूटी पर सवार होकर तूफ़ानी गति से उड़ान भर रहीं हैं। इनकी स्पीड देखकर जिन्न का भी सर चकरा रहा है।
ऐसा समर्पण और कहां? ये सब दृश्य देखकर तो चिराग़ का जिन्न भी चुल्लू भर पानी में डूब मरने की सोच रहा है।
हक़ीक़त तो यह है, कुछ भी करवा लो बिना उफ़ किये यह तो कर ही देंगे, क्यूँकि सारी दुनिया का बोझ ये उठाते हैं। इनका चयन कई कठिन परीक्षा के स्तर से गुजरने पर होता है।इनमें से कई नेट (NET), जे.आर.एफ़.(JRF)पीएच.डी.(Ph.D.)डिग्री धारी हैं। कई आई.ए.एस., डॉक्टर, इंजीनियर बनते-बनते रह गए।कई वर्षों की तैयारी के बाद भाग्य का साथ न दे पाने के कारण न्यूनतम अर्हता से कहीं अधिक शिक्षित एवं योग्य अध्यापक इस समय प्राइमरी टीचर हैं, लेकिन जब हमारे समाज में प्रतिष्ठा की बात आती है, तो अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर आदि को जितनी इज़्ज़्त बख़्शी जाती है, इन सब में सबसे निचले पायदान पर प्राइमरी का टीचर ही आता है।उसे वह सम्मान नहीं दिया जाता जिसका हक़ीक़त में वह हक़दार है। तकलीफ़देह बात तो यह है कि इतना काम करने के बाद भी इन्हें क्या मिलता है सिर्फ़ ज़िल्लत ही ज़िल्लत।कामचोर! बैठकर तनख़्वाह गिनने वालों में शुमार किया जाता है। वह सज्जन जो नियुक्ति व सैलरी निकलवाने के नाम पर हज़ारों रुपए की रिश्वत लेता है,वह बाबू मोशाय जो बच्चे की सी. सी. एल.(CCL) एप्लीकेशन अप्रूव करवाने, चयन-वेतनमान लगवाने के लिए गिद्ध के जैसे घात लगाए बैठा रहता है।यहां तक कि अपना फ़ालतू भी फाइल इस टेबल से उस टेबल तक सरकाने के लिए अपनी'चहास'उजागर करता है और जब तक ये नहीं बुझती तब तक टरकाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है।ऐसे में सभी को आपस में मिल-जुल कर इनके लिए भी कोई सुन्दर विशेषण ढूँढ़ना चाहिए।
अपने नियुक्ति पत्र में दिए गए कर्तव्यों को ताक़ पर रखकर जितना काम प्राइमरी का मास्टर अकेले करता है, अगर इन सब कामों के लिए रोज़गार के विज्ञापन जारी किए जाएँ, तो हमारे देश के सारे बेरोज़गार खप जाएँगे और लोगों की कमी पड़ जाएगी तब भी नौकरियां बची रहेंगी। कोविड काल में भी जहां सभी स्कूल कॉलेज बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं। वहीं प्राइमरी के मास्टर को रोज़ आना है बच्चे हों या न हों। स्कूल आकर बाउंड्री में गाय, भैंस, बकरी आदि न घुस जाए; उसे रखाना है।नियमित रूप से घास छीलनी है, झाड़ू देना है, पेड़ लगाना है एवं उनकी गुड़ाई- छँटाई करनी है आदि-आदि। बच्चों के न रहने पर यह सब Innovative और Interesting काम करने हैं। घर-घर जाकर मिड-डे-मील का पैसा व राशन बँटवाना है। इसके बाद तो अब घर-घर जाकर भोजन बनाना ही बाक़ी रह गया है।
'अतिथि देवो भव' का अनुपालन करते हुए, छात्र रूपी मेहमान के स्कूल पहुंचने पर नाश्ते में दूध, फल, मेवा-मिश्री का इंतज़ाम करना और दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी इनके ही ज़िम्मे है। कुछ दिन बाद बच्चा सोकर, उठकर स्कूल चला आएगा। ब्रश कराने, नहलाने-धुलाने, ड्रेस पहनाने की ज़िम्मेदारी भी मास्टर को सौंप दी जाएगी और अगर ये जुनूनी जिन्न की तरह हर काम को अंजाम देते रहे, तो वह दिन दूर नहीं कि जब बच्चा पैदा होते ही इनके हवाले कर दिया जायेगा।
इनमें से किसी भी काम के मना करने पर एक दिन का वेतन काटने की घुड़की या वेतन रोकने की धमकी ही इस बेचारे के लिए काफ़ी है। क्या इनका ज़मीर नहीं है? क्या इनका स्वाभिमान नहीं है? जो इतनी लानत-मलामत बर्दाश्त करते रहते हैं।
स्वाभिमान तो है, पर इसके भी ऊपर उनका एक परिवार है। जिससे यह बहुत प्रेम करते हैं। उनके कँधों पर माता-पिता की दवा की ज़िम्मेदारी, पत्नी का करवा-चौथ, बच्चों के स्कूल की फीस, रक्षाबंधन, भैया-दूज आदि त्यौहार, बिजली का बिल, कार-लोन, मकान का किराया वग़ैरह तमाम ख़र्च एवं ज़िम्मेदारियों का बोझ है। एक दिन का वेतन कटना बहुत माइने रखता है और वेतन का रुकना तो सारी अर्थव्यवस्था को चरमरा देता है।कुछ तो स्पष्टीकरण देते-देते कंगाल हो रहे हैं।अब तो उधार लेने की नौबत आ गई है। यहाँ स्पष्टीकरण को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं। सभी पढ़े-लिखे समझदार हैं ।
जहां तक मेरे सामाजिक ज्ञान की सीमा है तो अनुभव कहता है कि इनका परिवार सुखी व संतुष्ट रहता है, अपेक्षाकृत बड़े-बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी के परिवार की तुलना में। यहां तक कि कई लोग इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचने के बाद भी घरेलू-कलह आदि से तंग आकर तथा जीवन से असंतुष्ट होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं। फिल्मी पर्दे का हीरो भी रियल लाइफ़ में ज़ीरो निकल जाता है।
माशा-अल्लाह! नज़र न लगे प्राइमरी के मास्टर की जिजीविषा को। आज तक मेरे संज्ञान में एक भी आत्महत्या या घरेलू झगड़े का केस सामने नहीं आया। थोड़ी बहुत तो टुन-फुन सभी जगह है, मगर बात हद से बढ़ती हुई नहीं दिखती। हाल ही में इनके ऊपर अत्याचार एवं उत्पीड़न की पराकाष्ठा इतनी बढ़ गई कि वेतन रुकने एवं प्रताड़ित होने पर, ये मास्टर सत्याग्रह के द्वारा गाँधीगिरी करने पर मजबूर हो गये हैं, लेकिन आत्महत्या के बारे में नहीं सोच सकते । सलाम है ऐसे जज़्बे को। शत-शत प्रणाम। कोटि-कोटि नमन।
आशा करते हैं कि हमारे यह पूजनीय प्राइमरी के मास्टर ऐसे ही अनेक अधिकारियों की नींव रखते रहेंगे जो समय-समय पर इन्हें मज़म्मत का मुरब्बा और घुड़की की घुट्टी खिला-पिला कर अपना सारा काम करवाते रहेंगे। यह भी भीगी-बिल्ली बनकर एवं खीस निपोरकर ख़ुशी- ख़ुशी हर काम करते रहेंगे। आख़िर में इनकी तरफ़ से बॉलीवुड के एक मशहूर गाने की पैरोडी पेश है-
हमने देखें हैं इन आंखों में छलकते आँसू, मास्टर को मास्टर ही रहने दो कोई काम ना दो। हैं ये इंसान इन्हें इंसान बने रहने दो , रब के वास्ते जिन्न का इन्हें नाम ना दो ।
Woooowww bahut khub. 👍👍
ReplyDeleteVery touchy mam,hats off you...
ReplyDeleteनमामि मैम सभी शिक्षकों की व्यथा को अपनी लेखनी से शब्द देने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteWow mam superb,hats off you😊
ReplyDeleteMam Apne to harishankr parsai ji ki yad dila di
ReplyDeleteप्राइमरी के मास्टर के ऊपर अब तक का सर्वोत्तम व्यंग्य। इस multipurpose कर्मचारी के कामों का जिस सजीवता से वर्णन लेखक ने किया है, वह आज के प्राइमरी के अध्यापक का यथार्थ विश्लेषण है। वास्तव में यह 'जिन्न'जिस पठन-पाठन कार्य के लिए यह नियुक्त हुआ है, उसके अलावा यह सभी काम करता है। बालगणना, वृद्धगणना, जनगणना, मतगणना इत्यादि गणना करते हुए यह प्राणी अपनी गणना भूल जाता है। ऐसे 'innovative और interesting' कामों को करने वाला कर्मचारी अन्य किसी विभाग में मिलना मुश्किल ही नहीं,नामुमकिन है। स्वयं प्राइमरी स्कूलों से सम्बद्ध न होते हुए लेखक द्वारा प्राइमरी के मास्टर का ऐसा सजीव वर्णन करने के लिए साघुवाद।
ReplyDeleteVery touchy mam bahut khub kaha
ReplyDeleteVastav me aapka anubhav prashansneeya hai.
ReplyDeleteबहुत सी परिस्थितियां जानी पहचानी सी लगीं और इन्हें आपसे बेहतर कौन समझ सकता है।
ReplyDeleteAwesome🙏 U are killing it day by day.👍
Bahut achha laga hme aapne bahut achhe tareke se samjhaya hai👌👌
ReplyDeleteमैम आप अपनी हस्त लेखनी से प्रत्येक शिक्षक की समस्याओं को एक सूत्र में बाँध कर उजागर किया है यह आप का महनीय कार्य किया है आप को धन्यवाद के लिए कोई शब्द नहीं है। हृदय गौरवान्वित है मैं 👍👍
ReplyDeleteSo True 🙏🙏
ReplyDeleteSo True 🙏🙏
ReplyDeleteSo True 🙏🙏
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है मैम ........... ऐसी ही स्थिति बैंक कर्मियों के साथ भी है ..
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ReplyDeleteचिराग़ का जिन्न ; बिल्कुल सटीक और सार्थक विंदुओं के साथ व्यंग लेख है यहाँ प्राइमरी अध्यापक के हर उस पहलू को चित्रित किया है जो प्रायः उन्हें अध्यापन से ही दूर करती हैं । डॉक्टर, वकील, इंजिनियर आदि का उदाहरण देकर जिस तरफ ध्यानाकर्षित किया है वह विचारणीय विंदु है । नज़रिए है । आज इसी नज़रिए की आवश्यकता है । आइये इस नज़रिए से आध्यापक के छवि का प्रसार करें । अध्यापक को जिन्न या mts होने से बचाएं , जिससे अध्यापक अध्यापन के उदेश्य को पूर्ण कर सकें । गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु की छवि पुनः तभी लौटा सक्ति है ।
ReplyDeleteमैंम हम जैसे ज्ञान पिपाशुओं के लिए आप के विचारों का घडा़ ऐसे ही छलकता रहे । आप को प्रणाम 🙏
Very perfect description of current situation regarding primary teachers.In this writing you appear to have crossed even PARSAI also.congratulation. keep it up.
ReplyDeleteउत्तम:लेख:
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ReplyDeleteप्राइमरी शिक्षक की दशा या दुर्दशा कहें तो ज्यादा बेहतर होगा, का जो साक्षात्कार आपने अपनी लेखनी से कराया है वह अक्षरश: सत्य है| प्राइमरी शिक्षक की स्थिति पर यह सटीक और सर्वोत्तम व्यंग्य है|
ReplyDeleteBahut hi sahi bat hai 👍👍
ReplyDeleteTrue
ReplyDeleteइसी से मिलता जुलता एक संवर्ग है कंपाउंडर जिसे आजकल फार्मासिस्ट कहते है और शायद जल्द ही फार्मेसी अधिकारी कहलाने लगेंगे। इनसे भी कोई काम करवा लो और तो और ये भी पीछे नहीं हटते है। पूरे अस्पताल का जिम्मा इन्ही के कंधे पर रहती है। काम तो इनका दवा बाटने का और उनके रख रखाव का है लेकिन चपरासी से लेकर अधिकारी और डॉक्टर तक के कार्य के ये ही जिम्मेदार है। सभी की जवाबदेही इन्ही की है। अस्पताल में गंदगी है तो जिम्मेदार ये, लाइट नहीं है तो जिम्मेदार ये, पानी नहीं है तो जिम्मेदार ये, डाक्टर नहीं है तो उसकी जगह पर डॉक्टर बने ये। पोलियो की वैक्सीन पिलवाने से लेकर जहां चाहे वहाँ इनको तैनात कर दीजिए ये एक शब्द भी नहीं कहते।
ReplyDeleteयथार्थ का आइना कितनी ख़ूबसूरती से पेश किया है आपने 👏👏👏👏
ReplyDeleteयथार्थता व सच्चाई की खूबसूरत,कलमतोड़, सिलसिलेवार किस्सागोई की तरकीब से उनकी हकीकत फलस़फा। खैर एक पक्ष यह भी है कि इस हालात के लिए हम सरकारी मास्टर भी दोषी हैं। हमें अपनी व्यवस्था पर विश्वास नहीं तभी तो अपने पाल्यों का प्रवेश अंग्रेजी माध्यम में कराते हैं फिर देखा देखी सब..बात सच है पर कटु। 🙏🙏
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