ऑनलाइन टीचिंग: मजबूरी या मज़ाक़
नोट- यह लेख, लेखक की अनुभूति पर आधारित अभिव्यक्ति का उद्गिरण मात्र है।इसका किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग-विशेष से लेना-देना नहीं है।इसका उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है।
एक कहावत सुनी थी 'प्यासा कुएँ के पास जाता है', कुछ दिन बाद ‘कुआँ प्यासे के पास जाता है' सुनने में आने लगा। इसके बाद ‘कोई प्यासा हो न हो कुएँ को जाना है' और अब तो आलम यह है जनाब! सभी छके हुए हों, तृप्त हों, तब भी कुएँ को प्यासे के पास जाना ही है, वरना आजकल R.O. के ज़माने में कुएँ को कौन पूछता है साहब!
पहले तो धोबी का कुत्ता न घर का था न घाट का। आजकल उसका महत्व कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। घाट पर तो आने को मना किया गया है,लेकिन घर में बैठकर जितनी मर्ज़ी हो खुली आज़ादी के साथ दुम हिला सकता है। हाँ, ज़्यादा दिल घबराने पर अब तो घाट पर आकर भी दुम हिलाने की इजाज़त मिल गयी है। बाख़ुदा इतनी इज़्ज़त अफ़ज़ाई किसी ज़माने में न मिली। इनकी तो निकल पड़ी। जगह-जगह पूँछ हिलाने की पूछ हो रही है।
कोविड -19 के काल में नया आदेश " Work From Home" पारित हुआ है। दरअसल इसे "Work From Phone" होना चाहिए, क्योंकि फ़ोन के बिना तो घर पर झाड़ू-पोंछा, बर्तन-कपड़ा धोने के अलावा कोई option ही नहीं बचता। कुछ होनहार बन्धु जो पाककला में दक्ष हैं, उन्हें रोटी बेलने का काम सौंप दिया गया है, जिसे वे fake मुस्कुराहट एवं मुहब्बत का इज़हार करते हुए fakebook पर अपलोड कर, अन्दर ही अंदर कसमसा रहे होते हैं। फ़ोन रूपी ढाल के न होने पर यूं ही कब ठुकाई हो जाए, पता नहीं। सुनने में आया है कि आजकल घरेलू हिंसा के मामले कुछ ज़्यादा ही बढ़ गये हैं।
स्कूलों में Online Teaching का फ़रमान जारी होने पर, स्मार्टफ़ोन के अभ्यस्त न होने वाले ऐसे शिक्षक, जो कुछ समय पहले ही रिटायर हो चुके हैं, उन्होंने सोचा बिल्कुल सही समय पर मुक्ति मिली। 'जान बची तो लाखों पाए'। कुछ अनभिज्ञ रिटायर बंधु ऐसा भी सोचकर रश्क़ कर रहे हैं कि आजकल तो लोग घर बैठे ही वेतन ले रहे हैं, काश ! मैं भी ऐसा दिन देख पाता।
कुछ ऐसे भी बुज़ुर्ग अध्यापक देखने में आए जिन्होंने कुछ दिन ऑनलाइन टीचिंग के पापड़ बेलने के बाद, तकनीकी जानकारी न होने के कारण, रोज़-रोज़ क्लास में बच्चों के सामने बेइज़्ज़त होने के बजाय Voluntary Retirement (वॉलंटरी रिटायरमेंट) लेना बेहतर समझा। पहले तो क्लास में सिर्फ़ बच्चे होते थे, अब तो पैरेंट्स भी ताक लगाए बैठे रहते हैं। कभी-कभी तो Confusion(कंफ्यूज़न) हो जाता है कि टीचर बच्चे को पढ़ा रहा है कि बच्चे टीचर को Online Teaching सिखा रहे हैं।
कुछ ऐसे अध्यापक जिनके रिटायर होने में चंद साल बचे हैं, उनका हाल देखिए, पहले तो जब वे घर पहुंचते थे तो घर के बच्चे एक कोने में दुबककर ज़रा भी चूँ- चाँ न करते। एक ही घुड़की में शान्ति-शान्ति। पर अब ऐसा क्या हो गया? दादाजी के आने के बाद भी धमा-चौकड़ी मचा रखी है। दादाजी चुप, कहें भी तो क्या कहें। सारा जीवन गर्व से मास्टर जी कहलाए। अब बुढ़ापे में इस चांडाल-चौकड़ी का शिष्य बनना पड़ रहा है। अरे! इनके बिना मोबाइल से Online Teaching कैसे हो पाएगी? जिस काम को करने में घंटों लग जाते हैं, उसे ये शैतान चुटकी बजाते ही न जाने कैसे कर लेते हैं? वो भी बिना सिखाए। इसे सीखने के लिए मास्टरजी को भारी फ़ीस भी चुकानी पड़ रही है। चॉकलेट, आइसक्रीम, पिज़्ज़ा, बर्गर, वग़ैरह- वग़ैरह। दादाजी को सिखाते- सिखाते कब Zomato, Swiggy से आर्डर भी हो जाता है, दादाजी को पता भी नहीं चलता। क्या मजाल! अगर ज़रा सी भी इसके बारे में पूछताछ कर लें या आर्डर आने पर घूर के देख लें। तुरन्त ठुनक कर चल देते हैं। लो कर लो अपने आप कल की google meeting (गूगल मीटिंग)। बड़ा चारा डालकर इन बदमाशों से काम निकलवाना पड़ रहा है। उम्र का हिसाब-किताब लगाकर, पाप- पुण्य का ब्यौरा इकट्ठा कर , भगवद्भजन करना अभी शुरू किया ही था कि न जाने कौन सा पाप फलित हो गया और ये Online Teaching का पहाड़ टूट पड़ा। सत्यानाश हो गया बुढ़ापे का। ये दिन भी अभी देखना बाक़ी था।
दूसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जिन्हें नौकरी करते हुए कुछ अरसा बीत गया है और आगे अच्छा अरसा बिताना बाक़ी है। वे स्मार्टफ़ोन के जैसे स्मार्ट बनने के चक्कर में रात-रात भर जागकर program set (PPT, Video etc.) करते हैं। सुबह प्रतिस्पर्धियों के सम्मुख अपलोड करते समय उनकी चौड़ी छाती के साथ-साथ आँखों के dark circle (डार्क-सर्किल) बिल्कुल साफ़ देखे जा सकते हैं।
अगली श्रेणी में वे नौजवान युवक-युवतियाँ हैं, जो इस काम को करने में सिद्धहस्त हैं, मगर इनमें प्रायः संविदा या अतिथि अध्यापक ही हैं। ये मन-मसोस कर रह जाते हैं कि सब कुछ आते हुए भी हमें घर बैठा दिया गया है। वे बिना फ़ोन वाला असली work from home (वर्क फ्रॉम होम कर) रहे हैं।
कुछ प्राइवेट स्कूल हैं, जहाँ पर ये इस काम को बख़ूबी अंजाम दे रहे हैं। मगर parents (पेरेंट्स) के फ़ीस न दे पाने की हालत में न जाने कितनों को नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है।
कुछ अन्धों में काना राजा भी हैं, जिनकी अभी ताज़ी स्थायी नियुक्ति हुई है। तकनीकी जानकार होने के कारण चारों तरफ़ लोग इन्हें हाथों - हाथ ले रहे हैं। नियुक्त होते ही व्यस्त हो गए हैं। सीनियर लोगों की हालत देखकर सोच रहे हैं कि इनके बिना काम नहीं चलेगा। नए होने के कारण थोड़ा झिझक है, पर अन्दर से चतुर बदमाश नौजवान अवसर की तलाश में हैं कि कब इस काम का मोटा हर्जाना वसूला जाए।
कुछ एकाध प्रतिशत ऐसे भी अध्यापक व शिक्षामित्र हैं, जो बहुत दिनों से स्मार्टफ़ोन लेने के बारे में सोच रहे हैं। न जाने कब तक इस Online Teaching का बवाल चलेगा, ये सोचकर घर के कुछ खर्चों में कटौती करके, ख़रीदने की कोशिश में लगे हुए हैं।
कुछ अध्यापक तो बाक़ायदा Social distancing का पालन करते हुए गाँव की चौपाल से लेकर गली के नुक्क्ड़, तिराहे, पान की गुमटी आदि पर खड़े हो Online Teaching को भरपूर कोसते नज़र आते हैं।
LIC के एजेण्ट के फ़ोन करने पर लोग जैसे कन्नी काटते हैं, आजकल प्रोफ़ेसर के फ़ोन करने पर विद्यार्थी कन्नी काटने लगे हैं। जैसे बैंक लोन जमा करने या मोबाइल रिचार्ज करने के लिए बार-बार reminder (रिमाइंडर) आता है, वैसे ही आजकल टीचर तैनात होकर Assignment (एसाइनमेण्ट) आदि जमा करने के लिए reminder पर reminder भेज रहे हैं। जैसे बस या ट्रेन पर साबुन, तेल आदि बेचने वाले जोंक की तरह चिपक जाते हैं, उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कोई घाघ ही उनकी आँखों से बच सकता है। ऐसे ही घात लगाए आजकल टीचर बैठे रहते हैं। कब कोई छात्र पकड़ में आए और सारा ज्ञान उड़ेल कर अपनी भड़ास निकाल लें।
कभी-कभी इतनी आजिज़ी हो जाती है कि तल्ख़ लहजा इख़्तियार करने का मन करता है, पर बेचारे विद्यार्थी, इन्हें तो बचपन से ही 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः' का पाठ पढ़ाया गया है, नहीं तो अब तक कब का उनके सब्र का बाँध टूट गया होता। इधर हम खेतों में धान बो रहे हैं और गुरुजी बार-बार फ़ोन करके चरस बो रहे हैं। इधर भैंसों को चारा डाल रहे हैं, उधर वे कक्षा में शास्त्र रूपी चारा डाल रहे हैं और न समझने पर दिमाग़ में भूसा भरा है, यह कह रहे हैं।यहाँ खेतों में बीजारोपण कर रहे हैं और ये महोदय मुझ मंदबुद्धि में शास्त्रारोपण कर महाकाव्य-सर्जन के स्वप्न देख रहे हैं।बार-बार फ़ोन करके, काम थमा के सब अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं। इतने मुस्तैद तो आम दिनों में न थे। कौन सा पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी मिली जा रही है। इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी भैया यही काम करना है तो पहले ही आदत डाल लो। एक बार कलम चलाने की आदत पड़ गयी तो फिर हल न चले है।
एक ज़माना था, जब बड़े-बड़े राजा महाराजा अपने बच्चों को गुरुकुल में छोड़ आते थे। गुरु-शिष्य के बीच किसी तीसरे की दख़लंदाज़ी न थी। अब तो हालात ऐसे हैं कि चाहे जितना मंदबुद्धि, उद्दण्ड, बद्तमीज़ छात्र हो, क्या मजाल! उसे कुछ कह सकें। सभी को पास करने का निर्देश जारी हुआ है। और तो और आप पढ़ा रहे हैं, बच्चे पढ़ रहे हैं, मगर परीक्षा में अंक भी अधिकारी व बाबू की मरज़ी से देना है। अध्यापक का अध्यापन, बच्चों की क़ाबिलियत, नाक़ाबिलियत कोई मायने नहीं रखती। आजकल गली-गली में यही चर्चा है -
हम कौन थे ( वशिष्ठ, विश्वामित्र, राधाकृष्णन, कलाम आदि)?(सरकारी व अधिकारी तन्त्र के कारण) क्या हो गए? (धोबी का कुत्ता) और क्या होंगे अभी ( उल्लू, कौआ, चील, गिध्द आदि)? आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।
हमारे देश की आत्मा (70 प्रतिशत आबादी) गाँवों में बसती है, जहां घर-घर से मिट्टी के चूल्हे पर बनी रोटी की सोंधी सी महक पिज़्ज़ा-बर्गर पर भारी पड़ती है। क्या हुआ उनके घरों में बिजली आने से अँधेरा है, मगर उनके दिलों में मैल नहीं, वे उजालों से भरे हुए हैं। क्या हुआ कि वहां घर-घर नेटवर्क नहीं मिलता, लेकिन उनके घर पहुँचकर भोजन न मिले, ऐसा हो नहीं सकता। क्या हुआ , इनके पास स्मार्टफ़ोन में Whatsapp/Facebook में संवेदना की भीड़ वाले मैसेज नहीं भरे होते। बिना इनके ही सुदूर गाँव में भी कोई हादसा होने पर मय्यत को कंधा देने वालों की भीड़ इकट्ठा हो जाती है। किसी भी विपदा पर पूरा गाँव बिना ग्रुप पर मैसेज किये ही एक पल में एक साथ खड़ा हो जाता है।
एक व्यक्ति जो चार दिनों से भूखा है, उसके सामने एक तरफ़ दो रोटी और एक तरफ़ स्मार्टफ़ोन 4G data/wifi आदि एक साथ रख दिया जाय तो पहले वह दो रोटी खाने के बाद ही फ़ोन को हाथ लगाएगा। प्राथमिक विद्यालय की एक होनहार बच्ची से इंटरव्यू में जब online teaching (ऑनलाइन टीचिंग) के बारे में पूछा गया तो बड़ी मासूमियत से उसने यह जवाब दिया- 'हम भी थोड़ा-बहुत मोबाइल के बारे में जानते हैं। बहुत अच्छा है। हमें कोई समस्या नहीं है। बस सरकार एक स्मार्टफ़ोन दे दे और नेट की सुविधा दे दे। हम भी शहर के बच्चों के जैसे पढ़ने में पीछे नहीं रहेंगे क्योंकि मेरे पास तो बेसिक फ़ोन भी नहीं है।
हमारे समय में कोई ग़रीब बच्चा पुराना बस्ता व किताबें लेकर, पुरानी ड्रेस और फटा जूता पहनकर स्कूल आता था तो उच्चवर्ग के बच्चे क्लास में मज़ाक़ उड़ाते थे। वह बच्चा पढ़ने में , मेहनत करने में उनसे आगे होते हुए भी हीनभावना का शिकार हो जाता था। आज एक वर्ग जिसके पास सुविधा है, उसे शिक्षा देकर और जो वंचित वर्ग है, उसे शिक्षा से वंचित कर, क्या हम उन किसान मज़दूर के बच्चों को हीन भावना का शिकार नहीं बना रहे? इनकी ही मेहनत के बल पर आज हम अन्न खा रहे हैं और ऊँचे-ऊंचे भवनों में आराम से बैठकर इनके बच्चों का भविष्य निर्धारित कर रहे हैं। कितने बच्चों के पास बेसिक फ़ोन तक नहीं है, है भी तो रिचार्ज नहीं, रिचार्ज भी हो गया तो बिजली नहीं, बिजली भी आ गयी तो नेटवर्क नहीं। ज़रा सी बारिश व हवा के झोंके से कभी नेटवर्क आ भी जाए तो उड़ जाता है।कहीं 20 किमी.पैदल कीचड़ भरे रास्ते पर चलने पर ही कुछ नेटवर्क आता है। ऐसे में एक बड़ा समूह उक्त शिक्षा से वंचित होने पर तेज़ी से हीनभावना व depression (डिप्रेशन) का शिकार हो रहा है। भले ही स्कूल न बुलाकर हम इन्हें कोविड 19 से बचा लें लेकिन इन्हें मनोरोगी होने से नहीं बचा सकते।
दूसरी ओर सारी सुविधा होने पर शिक्षा का लाभ लेने वाले जो बच्चे लगातार आठ-आठ घंटे पढ़ रहे हैं। उसके बाद उसी से होमवर्क करना, प्रोजेक्ट बनाना, सभी काम submit (सब्मिट) करना, इसके अलावा बाहर न जाने के कारण मोबाइल पर ही गेम खेलना, दोस्तों से चैटिंग करना आदि सारे काम ऑनलाइन हो रहे हैं। ऐसा आलम साल भर चलता रहा तो हम उन्हें स्कूल आने से तो बचा ले जाएंगे, लेकिन बाद में वे स्कूल आने लायक़ नहीं बचेंगे और बच भी गए तो उनमें से कोई इयरफ़ोन की जगह कान में सुनने की मशीन, आँखों में माइनस टेन(-10) के चश्मे लगाए या blind stick (ब्लाइंड स्टिक) लिए हुए, कोई बैसाखी या wheel chair(व्हीलचेयर) पर ही स्कूल आने लायक़ बचेगा। जिसके शुरुआती लक्षण सामने आने लगे हैं। इस महामारी से हम तो निपट लेंगे, लेकिन दूसरी आपदा मुँह बाए हमारे देश के भविष्य बच्चों की बाट जोह रही है।
एक ओर वंचित वर्ग के लिए कुँआ है तो दूसरी ओर सुविधा प्राप्त वर्ग के लिए खाई। चार दिन टीचर अगर घर बैठ जायेगा तो कौन सा उसकी इज़्ज़त में बट्टा लग जायेगा? चार दिन बच्चे अगर नहीं पढ़ेंगे तो कौन सा कद्दू में तीर मार लेंगे? हमारे ज़माने में यूनिवर्सिटी में ज़ीरो सेशन का फैशन था, तब भी आज चार पैसा कमाने के साथ-साथ चार लोगों के बीच थोड़ी-बहुत इज़्ज़त भी कमा ली है।
यह ऑनलाइन टीचिंग किसी के लिए मजबूरी है तो, किसी का मज़ाक़ उड़ाती दिख रही है। वर्तमान में इसका ख़मियाज़ा अध्यापक वर्ग भुगत रहा है और भविष्य में सभी छात्र भुगतने के लिए तैयार रहें।
Superb!!👍👍👍👌👌👌👏👏👏
ReplyDeleteऑनलाइन टीचिंग के स्याह पक्ष को उजागर करता हुआ यह लेख अध्यापक वर्ग और छात्रों पर ऑनलाइन टीचिंग के (दुष्)प्रभाव को व्यावहारिक रूप से चित्रित करता है। लेख में सभी उम्र के अध्यापक वर्ग तथा हर तबक़े के छात्र वर्ग को सम्मिलित करते हुए उन पर ऑनलाइन टीचिंग के प्रभाव के व्यंग्यात्मक वर्णन ने लेख को रुचिकर बना दिया है। यथास्थान मुहावरों का प्रयोग प्रशंसनीय है।
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteKagaz Kalam aur samay ka Sahi upyog aap hi kar rhi hain
ReplyDeleteBahut sundar tarah se sabdo k use karte hue ekdum truth ujagar kiya hai... Bahut khub Sis...
ReplyDelete👍👍👍👍👍
ReplyDeleteकटु सत्य
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ReplyDeleteHypocritic reality is what you have described so beautifully.Awful 😊😁
Reality of this pandemic situation and superb 👌🏻
ReplyDeleteReality of this pandemic situation and superb 👌🏻
ReplyDeleteReality of this pandemic situation and superb 👌🏻
ReplyDeleteआप ने इस लेख से सभी उम्र के लोगों का जो चित्र व्यंग्य द्वारा उपास्थापित किया है,कटु सत्य है। क्रमशः वर्णित यह लेख है अतः अत्यन्य रुचिकर भी है आप ने अपनी मेधा से जो लेख लोगों के बीच उजागर किया है कुछ सख्स को दुःखी कर सकता है पर मेरी दृष्टि से प्रशंसनीय लेख है आप की ।
Deleteबहुत ख़ूब
Deleteव्यंजना शक्ति का अद्भुत प्रयोग.....। पाठक अपने पूर्व अनुभव के अनुसार विविध बिम्बों का आस्वादन कर सकता है। प्रणामा आचार्याभ्यः।
ReplyDeleteबहुत अच्छा व्यंग्यात्मक लेख आज की परिस्थिति के विषय में..
ReplyDeleteकड़वा सच।
ReplyDeleteअति सटीक टिप्पणी आज के सन्दर्भ मे
ReplyDeleteऑनलाइन टीचिंग: मजबूरी या मज़ाक़ ; तात्कालिक परिस्थितियों पर व्यंजनात्मक लेख है, जो पुरातन एवं अधुनातन शिक्षण व्यवस्था/अधिगम तथा उसके परिणाम की ओर ध्यान आकर्षित करता है । सार्थक लेख 🌷🙏🏻 ।।
ReplyDeleteबहुसम्यक् 🙏🙏🙏
ReplyDeleteदिलचस्प
ReplyDeleteBahut sundar abhivakti hai
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteबहुत प्रासंगिक लेख।
ReplyDeleteबहुत प्रासंगिक लेख।
ReplyDeleteबहुत प्रासंगिक लेख।
ReplyDeleteलेखन कौशल का शानदार दृश्य
ReplyDeleteसत्य कथन
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteBahut badhiya hai ....
ReplyDeleteAmazing Ma'am, very beautifully expressed.
ReplyDeleteThis z the true scenerio , nowdays people are suffering even more
Mam wastw me Aapke lekh me is lockdown me hui smssst karyo ka Shar is me vidit hi .
ReplyDeleteThank you mam
Shastri Shivam Mishra Central Sanskrit University Lucknow campus gomati Nagar Vishal khand 4
True line 👌👌👌कड़वा सच।
ReplyDeleteTrue line 👌👌👌कड़वा सच।
ReplyDelete👍👍👍👍👍👍👍👍👍
ReplyDeleteBahut khoob likha hai apne mam
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteअति उत्तम। समसामयिक घटना पर इतना अच्छ जीवंत चित्रण! इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद!!!
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteवर्तमान में इसका ख़ामियाज़ा अध्यापक वर्ग भुगत रहा है और भविष्य में सभी छात्र भुगतने के लिए तैयार रहें। वर्तवान में यही स्थिति हैं । भविष्य चिंतनीय हैं ।
ReplyDeleteVery nice line
ReplyDeleteJi sahi me yeh to kadwa sach hi hai
ReplyDeleteBahut hi sundar likha hai aap ne 👍👍
ReplyDeleteYatharth chitran 👌
ReplyDeleteماشااللہ
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